Israel Lebanon War: इजराइल इन दिनों लेबनान पर प्रचंड प्रहार कर रहा है. जवाब में हिजबुल्लाह भी उस पर हमले कर रहा है. लेबनान को 1943 में फ्रांस से आजादी मिली थी. इजराइल बनने से पहले इस मुल्क में इस बात को लेकर बहस चल रही थी कि आखिरकार फिलिस्तीन के यहूदिओं से उसका किस तरह का संबंध होगा.

लेबनान पर एक हफ्ते में इजराइली हवाई हमलों में 550 से अधिक लेबनानी मारे गए हैं. 90 हजार लोग विस्थापित हुए हैं. यह संघर्ष अभी और बढ़ सकता है, क्योंकि लेबनान पर इजराइल के जमीनी आक्रमण की आशंका बढ़ रही है. लेबनान के लोग दक्षिणी भाग से पलायन कर रहे हैं. शायद ही दुनिया में पहली बार ऐसा नजारा देखने को मिल रहा है, जब कोई देश किसी दूसरे देश पर हमला करता है और वहां की सेना इसके जवाब में कुछ नहीं करती, क्योंकि इस देश को सरकार नहीं हिजबुल्लाह नाम का ऐसा संगठन चलाता है, जिसके पास देश की सरकार के समानांतर अपनी सेना है.

लगभग पिछले 40 साल से ईरान के इशारे पर काम करने वाला हिजबुल्लाह समय-समय पर इजराइल के खिलाफ प्रतिरोध की कार्रवाइयां करता आ रहा है. इसका भुगतान वहां की जनता को भुगतना पड़ता है. पहले पेजर्स, फिर वॉकी-टॉकी और अब इजराइल के हवाई हमले में मासूम बच्चे भी जान गवां रहे हैं. एक समय ऐसा भी था, जब इजराइल ने लेबनान के गृह युद्ध के दौरान वहां के लोगों की मदद भी की थी. वैसे कहा यह भी जाता है कि इजराइल यहां पर ईसाइयों की मदद करके मुसलमानों और खासकर फिलिस्तीन शरणार्थियों को निशाना बनाना चाहता था.

वैसे एक समय में लेबनान में ईसाई बहुसंख्यक थे. धीरे-धीरे देश पर शिया मुसलमानों को कब्जा हो गया. यह सब कैसे हुआ? लेबनान का इतिहास क्या? किस तरह से हिजबुल्लाह इतना ताकतवर बना और इजराइल से उसकी दुश्मनी कैसे बढ़ती गई? इसे जानने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटने की जरूरत है. इस लेख में उन सभी बातों को संक्षेप में बताने की कोशिश की गई है, ताकि आज जो जंग इजराइल और हिजबुल्लाह के बीच चल रही है, उसको सही से समझा जा सके.

कभी ईसाई थे बहुसंख्यक

1920 में मारोनाइट्स की आबादी लेबनान में 48% थी. ईसाई और अन्य लोगों की आबादी लगभग 22-25% थी, जिसने लेबनान को एक बहुत बड़ा ईसाई देश बना दिया, जिसके लगभग 70-75% निवासी ईसाई थे. 1920 में देश में लगभग 500 000 निवासी थे. 1932 की जनगणना में 7 लाख 85 हजार 542 नागरिक थे, जिनमें से 55% ईसाई और 45% (ड्रूज़ सहित) मुस्लिम थे. फ्रांसीसी देश छोड़ने की तैयारी कर रहे थे. स्वतंत्रता के समय लेबनान को सीरिया से तोड़कर अलग किया गया. यह ईसाई बहुल देश था. यहां पर लोकतंत्र को लागू किया गया, जिसके तहत सुन्नी मुस्लिम प्रधानमंत्री, एक मैरोनाइट ईसाई राष्ट्रपति और एक शिया मुस्लिम संसद का अध्यक्ष बनने का समझौता हुआ. हालांकि 1958 में मुस्लिम सुन्नी समुदाय और कुछ हद तक शिया समुदाय भी अधिक राजनीतिक शक्ति का दावा करने लगे थे.

उन्होंने राष्ट्रपति केमिली निम्र चामौन ओएम को हटाने के लिए तख्तापलट का प्रयास किया. मगर, अमेरिकी हस्तक्षेप के कारण वे असफल हो गए. मुसलमान एक ऐसे देश में पैन-अरबिज्म चाहते थे, जिसका जन्म मैरोनाइट ईसाइयों की रक्षा के लिए हुआ था. विद्रोह के डर से केमिली चामौन को फिर से राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी गई. फिर गृह युद्ध शुरू हुआ, जिसमें ईसाइयों को जिंदा रहने के लिए संघर्ष करना पड़ा. उनमें से बहुत से लोग पश्चिम की ओर भाग गए और 80 के दशक में बड़े पैमाने पर प्रवास के कारण उनकी आबादी केवल 23% रह गई. युद्ध समाप्त होने के बाद राजनीतिक सत्ता अब मुस्लिम हाथों में थी, एक कमजोर ईसाई राष्ट्रपति जिसके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी और संसद 50/50 थी.

यहां से शुरू हुई इजराइल से दुश्मनी

लेबनान को 1943 में फ्रांस से आजादी मिली थी. इजराइल बनने से पहले इस मुल्क में इस बात को लेकर बहस चल रही थी कि आखिरकार फिलिस्तीन के यहूदिओं से उसका किस तरह का संबंध होगा. सभी को लग रहा था कि लेबनान में ईसाई होने के कारण इजराइल के यहूदियों के साथ रिश्ते रखे जाएंगे, लेकिन लेबनान के संस्थापकों रियाद अल-सोलह और बेचारा अल-खौरी ने इजराइल की बजाय पड़ोसी अरब राज्यों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे और असल समस्या यहीं से पैदा हुई.

14 मई 1948 को इजराइल राज्य ने स्वतंत्रता की घोषणा की. अगले दिन मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक व लेबनान ने इजराइल के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. इजराइली सेना ने अरब लड़ाकों को खदेड़ दिया और अस्थायी रूप से दक्षिणी लेबनान के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया. इसके बाद दोनों देशों के बीच 1965 तक सबकुछ शांत रहा, लेकिन इसी साल बने फिलिस्तीनी राष्ट्रवादी समूह ने इजराइली ठिकानों पर हमले शुरू कर दिए. हालांकि उस समय लेबनान में फिलिस्तीनी राष्ट्रवादी समूह की मदद की मांग उठने लगी लेकिन वह इससे दूर रहा.

जब लेबनान भाग गए फिलिस्तीनी

1967 में 5 जून को छह दिवसीय युद्ध चला. एक सप्ताह में अरब सेनाएं इजराइल से बुरी तरह से हार गईं. इसके बाद इजराइल ने यरुशलम और वेस्ट बैंक पर कब्जा कर लिया. यहां से हजारों फिलिस्तीनी शरणार्थी लेबनान भाग गए. इसके बाद लेबनान की यहूदी आबादी के खिलाफ हिंसा भड़काई गई और उनको यहां से पलायन होने के लिए मजबूर होना पड़ा. एक साल बाद यासर अराफात की पार्टी ने फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन पर नियंत्रण कर लिया, जिसमें 14 समूहों ने फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के तत्वावधान में इजराइल के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया.

2 नवंबर 1969 को अराफात और लेबनानी सेना के जनरल एमिल बुस्तानी के बीच एक समझौता हुआ. इसके तहत लेबनान में 16 फिलिस्तीनी शरणार्थी शिविरों का नियंत्रण फिलिस्तीनी सशस्त्र संघर्ष कमान को सौंप दिया गया. इस समझौते में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को लेबनान में रहते हुए इजराइल के खिलाफ ऑपरेशन शुरू करने की सहमति भी शामिल थी. कुछ समय बाद पीएलओ ने अपना ऑफिस जॉर्डन से लेबनान की राजधानी बेरूत शिफ्ट कर लिया.

9 अप्रैल 1973 को इजराइल की टीम ने लेबनान में घुसकर 3 पीएलओ नेताओं की हत्या कर दी. इसके बाद लेबनान में बैठे लड़ाकों ने इजराइल के खिलाफ जंग जारी रखी और 1978 में इजराइल ने लेबनान पर आक्रमण कर दिया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को बीच में आना पड़ा और इजराइली सेना को लौटने का आदेश देते हुए लेबनान में संयुक्त राष्ट्र अंतरिम बल की स्थापना की. 6 जून 1982 को इजराइल ने अपनी सीमा पर पीएलओ के हमलों के जवाब में लेबनान पर हमला किया. आक्रमण के परिणामस्वरूप 1 सितंबर को बहुराष्ट्रीय शांति सेना की देखरेख में पीएलओ को लेबनान से प्रस्थान करना पड़ा. इसके बाद ईरान की मदद से हिजबुल्लाह का उदय हुआ.

लेबनान में क्यों हुआ गृह युद्ध

हिजबुल्लाह लेबनान में स्थित एक शिया मुस्लिम राजनीतिक दल और समूह है, जो पंद्रह साल के लेबनानी गृह युद्ध (1975-1990) की अराजकता के दौरान उभरा. 1943 के राजनीतिक समझौते के तहत लेबनान के प्रमुख धार्मिक समूहों के बीच राजनीतिक शक्ति को विभाजित किया गया, जिसमें एक सुन्नी मुस्लिम प्रधानमंत्री, एक मैरोनाइट ईसाई राष्ट्रपति और एक शिया मुस्लिम संसद का अध्यक्ष बनेगा. इन समूहों के बीच तनाव गृह युद्ध में बदल गया क्योंकि कई कारणों ने संतुलन को बिगाड़ दिया. लेबनान में फिलिस्तीनी शरणार्थियों के आने से सुन्नी आबादी बढ़ गई थी. जबकि शियाओं को सत्तारूढ़ ईसाई अल्पसंख्यक द्वारा तेजी से हाशिए पर रखा गया. इसी बीच इजराइली सेना ने 1978 में और फिर 1982 में दक्षिणी लेबनान पर हमला किया ताकि फिलिस्तीनी गुरिल्ला लड़ाकों को खदेड़ सकें, जो इस क्षेत्र का इस्तेमाल उस पर हमला करने के लिए अपनाया करते थे.

कैसे बना हिजबुल्लाह

1979 में ईरान में शिया सरकार बनीं. इसके बाद ईरान और उसके इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) ने तेजी से उभर रहे एक संगठन को धन और प्रशिक्षण प्रदान किया, जिसने हिजबुल्लाह नाम अपनाया. ईरान ने लेबनान के शियाओं के साथ सदियों पुराने संबंधों का लाभ उठाया. 16वीं और 18वीं शताब्दी के बीच सफविद राजवंश ने धीरे-धीरे ईरान (जो मुख्य रूप से सुन्नी देश था) को शिया धर्म में परिवर्तित कर दिया. सफविद ने इसके लिए दक्षिणी लेबनान के शिया मौलवियों की मदद ली थी. इसके बाद कई लेबनानी मौलवियों ने ईरान में अध्ययन किया और परिवारों ने आपस में विवाह किया. शाह का विरोध करने वाले कई ईरानियों ने 1979 की क्रांति से पहले के वर्षों में लेबनान में शरण भी ली.

1985 में जारी हिजबुल्लाह के पहले घोषणापत्र में शियावाद की क्रांतिकारी व्याख्या पर आधारित ईरान की विचारधारा को दर्शाया गया था. संगठन के लोगो में भी ईरान का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जिसमें एक हाथ में राइफल और ग्लोब पकड़े हुए दिखाया गया है, जो IRGC के लोगों जैसा था. नसरल्लाह ने 2016 में कहा था कि हिजबुल्लाह का बजट, वह जो कुछ भी खाता-पीता है, उसके हथियार और रॉकेट, इस्लामी गणराज्य ईरान से आते हैं. आज के समय में हिजबुल्लाह लेबनान के शिया-बहुल क्षेत्रों पर नियंत्रण रखता है, जिसमें बेरूत, दक्षिणी लेबनान और पूर्वी बेका घाटी क्षेत्र के कुछ हिस्से शामिल हैं.

लेबनानी राजनीति में हिजबुल्लाह की भूमिका

हिजबुल्लाह 1992 से लेबनानी सरकार का अभिन्न अंग रहा है, जब इसके आठ सदस्य संसद के लिए चुने गए थे. पार्टी ने 2005 से कैबिनेट पदों पर कब्जा किया है. हालिया राष्ट्रीय चुनाव (2022 में) हिजबुल्लाह ने लेबनान की 128 सदस्यीय संसद में अपनी 13 सीटें बरकरार रखीं. हालांकि, पार्टी और उसके सहयोगियों ने अपना बहुमत खो दिया. हिजबुल्लाह अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से एक सरकार के रूप में काम करता है और न तो सेना और न ही संघीय अधिकारी इसका मुकाबला कर सकते हैं.

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