“खजुराहो के बस स्टैंड पर खड़ा हूं, साहब। जगह का नाम है ‘राजा यशोवर्मन बस स्टैंड’। नाम सुनते ही लगता है, कोई ऐतिहासिक गौरव है। मगर बस यही नाम सुनकर रुक जाइए, क्योंकि असलियत देखकर आपके भीतर का गौरव, शर्म में बदल जाएगा।”

लालटेन से जलती रोशनी में धूल-मिट्टी से सना ये बस स्टैंड किसी युद्ध के मैदान से कम नहीं लगता। राजा यशोवर्मन, जिनके नाम पर खजुराहो का गौरव बना, शायद ये सोच भी नहीं सकते थे कि उनके नाम पर एक बस स्टैंड बनेगा… और ऐसी दुर्गति झेलेगा!

“टूटी बेंच, फटे-पुराने पोस्टर, और चारों ओर कचरे का साम्राज्य। वाह! ये है आधुनिक भारत का ऐतिहासिक सम्मान।”

नेता जी आते हैं, हर चुनाव में भाषण देते हैं। कहते हैं, “खजुराहो को पर्यटन का हब बनाएंगे। यशोवर्मन जी की स्मृति को संजोएंगे।” पर असल में करते क्या हैं? एक नई ईंट तक नहीं लगाते।

बस स्टैंड की हालत देखकर सोच रहा था, अगर राजा यशोवर्मन आज यहां होते, तो शायद पूछते:
“भाई, ये मेरे नाम पर है, या मेरे नाम की बदनामी के लिए?”

और सुनिए, रात को लालटेन लेकर घूमें, क्योंकि यहां स्ट्रीट लाइट तक नहीं है। यात्रियों को कुत्ते भौंककर विदा करते हैं, और अधिकारी दूर बैठकर फाइलों में ‘पर्यटन’ का नक्शा खींचते हैं।

“तो साहब, अगर खजुराहो आइए, तो मंदिर जरूर देखिए। लेकिन राजा यशोवर्मन के नाम पर बने इस बस स्टैंड को मत देखिएगा। क्योंकि यह बस एक याद नहीं, एक मजाक है।”

लालटेन की रोशनी में ये मजाक साफ दिखता है, और शायद यह हमें याद दिलाता है कि इतिहास को भुलाने वाले, एक दिन खुद इतिहास बन जाते हैं।

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